युनिट 1
: श्रवण और लेखन कौशल आधारित
प्रवृतियाँ।
1.1 https://youtu.be/IPNVwstst7s , https://youtu.be/JJKpjtr15wk विडिओ क्लिप सुनकर काव्य में प्रस्तुत विचारों पर चिंतनकीजिए।
1) 'गीत फरोश' -भवानीप्रसाद
मिश्र
2) व्याल पर विजय -रामधारी सिंह 'दिनकर'
यूट्यूब के चैनल हिंदी कविता मैं भवानी प्रसाद मिश्रा और रामधारी सिंह 'दिनकर' की कविताओं का पठान दिया गया है मैंने दोनों वीडियो को अच्छी तरह से देखा और मेरी समझ के अनुसार यहां पर उनके बारे में उन कविता के बारे में मेरे विचार प्रगट कर रहा हूं।
भवानी प्रसाद मिश्र
भवानी प्रसाद मिश्र (जन्म: २९ मार्च १९१४ - मृत्यु: २० फ़रवरी १९८५) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि तथा गांधीवादी
विचारक थे। वे 'दूसरा सप्तक' के प्रथम कवि हैं। गांधी-दर्शन का प्रभाव तथा
उसकी झलक उनकी कविताओं में स्पष्ट देखी जा सकती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीत-फ़रोश' अपनी नई
शैली, नई
उद्भावनाओं और नये पाठ-प्रवाह के कारण अत्यन्त लोकप्रिय हुआ । उन्होंने स्वयं को कभी भी निराशा के गर्त में डूबने नहीं
दिया। जैसे सात-सात बार मौत से वे लड़े वैसे ही आजादी के पहले गुलामी से लड़े और
आजादी के बाद तानाशाही से भी लड़े। आपातकाल के दौरान नियम पूर्वक सुबह-दोपहर-शाम
तीनों वेलाओं में उन्होंने कवितायें लिखी थीं जो बाद में त्रिकाल सन्ध्या नामक पुस्तक में प्रकाशित भी हुईं। भवानी भाई को १९७२ में उनकी कृति बुनी
हुई रस्सी पर साहित्य
अकादमी पुरस्कार मिला। १९८१-८२ में उत्तर
प्रदेश हिन्दी संस्थान का साहित्यकार सम्मान दिया गया तथा १९८३ में उन्हें मध्य प्रदेश शासन के शिखर सम्मान से अलंकृत किया
गया।
जीवन परिचय
भवानीप्रसाद मिश्र का जन्म गाँव टिगरिया, तहसील सिवनी
मालवा, जिला होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) में हुआ था। क्रमश: सोहागपुर, होशंगाबाद, नरसिंहपुर जबलपुर में उनकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई। १९३४-३५ में उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत विषय लेकर बी०ए० पास किया। महात्मा
गांधी के विचारों के अनुसार शिक्षा देने के विचार से एक स्कूल
खोलकर अध्यापन कार्य शुरू किया और उस स्कूल को चलाते हुए १९४२ में गिरफ्तार होकर १९४५ में छूटे। उसी वर्ष महिलाश्रम वर्धा में शिक्षा देने एक शिक्षक की तरह गये
और चार-पाँच साल वहीं बिताये। कविताएँ लिखना लगभग १९३० से ही नियमित रूप से प्रारम्भ हो गया था और कुछ कविताएँ पं०
ईश्वरी प्रसाद वर्मा के सम्पादन में निकलने वाले हिन्दूपंच में हाईस्कूल पास होने
के पहले ही प्रकाशित हो चुकी थीं। सन १९३२-३३ में वे माखनलाल
चतुर्वेदी के सम्पर्क में आये। चतुर्वेदी जी आग्रहपूर्वक कर्मवीर में
उनकी कविताएँ प्रकाशित करते रहे। हंस में भी उनकी काफी कविताएँ छपीं उसके
बाद अज्ञेय जी ने 'दूसरा सप्तक' में उन्हें प्रकाशित किया। 'दूसरा
सप्तक' के बाद
प्रकाशन क्रम ज्यादा नियमित होता गया। उन्होंने चित्रपट के लिये संवाद लिखे और
मद्रास के ए०बी०एम० में संवाद निर्देशन भी किया। मद्रास सेवे मुम्बई में आकाशवाणी के प्रोड्यूसर होकर गये। बाद में उन्होंने आकाशवाणी केन्द्र दिल्ली में भी काम किया। जीवन के ३३वें वर्ष
से वे खादी पहनने लगे। जीवन की सान्ध्य बेला में वे दिल्ली से नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश) एक विवाह समारोह में गये थे वहीं अचानक बीमार
हो गये और अपने सगे सम्बन्धियों व परिवार जनों के बीच अन्तिम साँस ली। किसी को
मरते समय भी कष्ट नहीं पहुँचाया। उनके पुत्र अनुपम
मिश्र एक सुपरिचित पर्यावरणविद थे।
प्रमुख कृतियाँ
कविता संग्रह- गीत
फरोश, चकित है
दुख, गान्धी
पंचशती, बुनी
हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल सन्ध्या, व्यक्तिगत, परिवर्तन
जिए, अनाम तुम
आते हो, इदम् न मम, शरीर
कविता: फसलें और फूल, मानसरोवर दिन, सम्प्रति, अँधेरी कविताएँ, तूस की आग, कालजयी, नीली रेखा
तक और सन्नाटा,
बाल कविताएँ – तुकों के खेल
संस्मरण -जिन्होंने मुझे रचा
निबन्ध संग्रह - कुछ नीति कुछ राजनीति
विचारधारा
भवानी प्रसाद मिश्र उन गिने चुने कवियों में थे जो कविता को
ही अपना धर्म मानते थे और आम जनों की बात उनकी भाषा में ही रखते थे। उन्होंने ताल
ठोककर कवियों को नसीहत दी थी
'जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख,
'और इसके बाद भीं हम से बड़ा तू दिख।
उनकी बहुत सारी कविताओं को पढ़ते हुए महसूस होता है कि कवि
आपसे बोल रहा है, बतिया रहा है। जहाँ अपनी 'गीतफरोश' कविता में कवि
ने अपने फ़िल्मी दुनिया में बिताये समय को याद कर कवि के गीतों का विक्रेता बन
जाने की विडम्बना को मार्मिकता के साथ कविता में ढाला है वहीं 'सतपुड़ा
के जंगल' जैसी
कविता सुधी पाठकों को एक अछूती प्रकृति की सुन्दर दुनिया में लेकर चलती है।.उनकी
कविताएँ गेय हैं और पाठकों को ताउम्र स्मरण रहती हैं।
वे गूढ़ बातों को भी बहुत ही आसानी और सरलता के साथ अपनी
कविताओं में रखते थे। नई कविताओं में उनका काफी योगदान है। उनका सादगी भरा शिल्प
अब भी नये कवियों के लिए चुनौती और प्रेरणास्रोत है। वे जनता की बात को जनभाषा में
ही रखते थे। उनकी कविताओं में नये भारत का स्वप्न झलकता है। उनकी कविताएँ परिवर्तन
और सुधार की अभिव्यक्ति हैं। वे आपातकाल में विरोध में खड़े हो गए और विरोध स्वरूप
प्रतिदिन तीन कवितायें लिखते थे। वस्तुत: वे कवियों के कवि थे।
भवानी प्रसाद मिश्र के कुछ उल्लेखनीय कार्य हैं
Ø ये कोहरे मेरे
हैं
Ø त्रिकाल
संध्याः
Ø टस की आग,
Ø कुछ नीति कुछ
राजनीति,
Ø इदं न मम,
Ø गीतफ़रोश,
Ø बनी हुई
रस्सी.
Ø कठपुतली कविता.
Ø सतपुड़ा के
घने जंगल (कविता)
Ø पाहिला दर्द
(कविता)
Ø घर की याद
(कविता)
Ø मन एक मैली
कमीज़ है
Ø त्रिकाल
संध्या
Ø
इसे जगावो (कविता)
गीतफरोश 1956
YouTube:-hindi Kavita
अपलोडVideo
24 जुलाई 2015
स्वानंद किरकिरे गीतकार एवं गायक
गीत बेचने वाला प्रगतिशील एवं
व्यंग्यात्मक फेरी वाले की तरह ग्राहक की तरह गीत भेजता है सरल शब्दों में कहानी
बताइए
'गीत
फरोश'
पहला
संग्रह 'गीत फरोश' नाम से 1956 ई. में
प्रकाशित होता है जिसमें 1930 से 1945 की
कविताएँ संग्रहित हैं। 'गीत फरोश' इस सग्रह की प्रतिनिधि कविता है जिसके
नाम से इस काव्य संग्रह का नाम रखा गया है। इस संकलन की यह सर्वश्रेष्ठ एवं
बहुचर्चित कविता भी है।
शिल्प विधान
की दृष्टि से यह गीत बड़े ही अनोखे ढंग से, नाटकीयता
सतर्कता, सम्बोधन शैली, आँचलिकता
आदि विशेषताएँ लिये हुए है।
गीत-फ़रोश
की रचना प्रक्रिया
गीत-फ़रोश
गीत के रूप में लिखा गया है जिसमें एक नया प्रवाह और नया भाव-बोध देखा जा सकता है।
आत्म स्वीकृति और पूंजीवाद ने कैसे हर चीज को बिकाऊ कर दिया है। इसी बात को इस गीत
में व्यंजित किया गया है। यह कविता कविकर्म के प्रति समाज और स्वयं कवि के बदलते
हुए दृष्टिकोण को उजागर करती है। व्यंग्य के साथ-साथ इसमें वस्तु स्थिति का
मार्मिक निरूपण भी है। 'गीत-फरोश' कविता में कवि ने अपने फ़िल्मी दुनिया में
बिताये समय को याद कर कवि के गीतों का विक्रेता बन जाने की विडम्बना को मार्मिकता
के साथ कविता में ढाला है।
गीत-फरोश
कविता की पृष्ठभूमि के विषय में कवि ने स्वयं कहा है कि- "गीत-फरोश शीर्षक
हँसाने वाली कविता मैंने बड़ी तकलीफ में लिखी थी। मैं पैसे को कोई महत्व नहीं देता
लेकिन पैसा बीच-बीच में अपना महत्त्व स्वयं प्रतिष्ठित करा लेता है। मुझे अपनी बहन
की शादी करनी थी। पैसा मेरे पास था नहीं तो मैंने कलकत्ते में बन रही फिल्म के लिए
भोत लिखे। गीत अच्छे लिखे गए। लेकिन मुझे इस बात का दुख था कि मैंने पैसे लेकर गीत
लिखे।
मैं कुछ लिखूं इसका पैसा मिल जाए, यह अलग बात है, लेकिन कोई मुझसे कहे कि इतने पैसे देता तुम गीत लिख दो। यह स्थिति मुझे बहुत नापसंद। क्योंकि मैं ऐसा मानता हूँ कि आदमी की जो साधना का विषय है वह उसकी जीविका का विषय नहीं होना चाहिए। फिर कविसरतो अपनी इच्छा से लिखी जाने वाली चीज है। इस तकलीफ देह पृष्ठभूमि में लिखी गई गीत-फरोश।"
गीत-फरोश कविता की व्याख्या
'दूसरे
सप्तक' की प्रायः सभी कविताओं में मिश्र जी की 'गीत-फरोश' कविता
अत्यन्त चर्चित रही है। अधरों की मुस्कान के साथ-साथ कवि सूक्ष्म व्यंग्य युक्त
भाषा में फेरी वाले की भाँति पुकार लगाकर 'किसिम-किसिम' के गीत
बेचता है। वह दिन-रात लिखता है। क्योंकि उसकी कलम दूसरों की पसन्द पर टिकी हुई है।
लेखक कहता है कि वह आज इस स्थिति में पहुँच गया है कि उसे
पहले परिश्रम श्रद्धय गीतों को बेचना पड़ रहा है। एक लेखक उन परिस्थितियों में है
कि उसे अपनी जीविका के लिए अपनी कलम को बेचना पड़ता है। यह पूंजीवाद का वह दौर है
जो सभी को उपभोक्तावादी बना दिया है जहाँ हर चीज बिकाऊ है। कविता इस आत्म
स्वीकरोक्ति से प्रारंभ होती है की मैं अपने गीतों को बेच रहा हूँ जो वैविध्यपूर्ण
हैं। कवि कहता है कि पहले गीत देख लीजिये, उसके बाद
मैं आपको मैं दाम भी बता दूंगा। लेखक कहता है मेरे पास हर तरह के गीत है। कोई भी
गीत ले वह निरर्थक न होगा। हर एक में कुछ अर्थ जरूर होगा। आगे कवि कहता है की ये
गीत मैंने मौज मस्ती और पस्ती दोनों ही स्थितियों में लिखे हैं। मेरे गीत गमों को
हरने वाले, पिया को पास बुलाने वाले है।
यह गीत
लेखक की रचना है इसलिए उसे इसे बेचने में शर्म आती है परंतु अब वह उसके महत्व को
समझ चुका है। उसे याद आता है कि लोग तो अपना ईमान तक बेच दे रहे मैं सिर्फ गीत बेच
रहा हूँ। इसीलिए लेखक कहता है कि मैंने बहुत सोच समझकर अपने गीत बेचने का निर्णय
लिया है। लेखक ने इन पंक्तियों में बाजारीकरण के बढ़ते दुष्प्रभावों को रेखांकित
करता है। इस कविता में जीवन की विडम्बना पर कवि का करुण आक्रोश बड़े ही गहरे स्तर
पर उभरा है। जहाँ ईमान बिकता है, वहाँ भला गीतकार अपने गीत क्यों न
बेंचे? तीव्र व्यंग्यात्मकता के साथ कवि की विवशता का एक करुण
स्पर्श इस कविता की अपनी मौलिक विशेषता है।
जिस तरह
से कोई बिक्रेता अपने सामान की विशेषता बता बता के अपना सामान बेचता है उसी तरह
लेखक अपने गीत की विशेषता बता रहा है कि सुबह का गीत है शाम का गीत है। सुख का गीत
है दुख का गीत है। यह गीत भूख बढ़ता भी और भूख खत्म भी करता है। ये दवा का भी काम
करता है ये दुआ का भी काम करता है। मेरे पास गीत की भरमार है न आया हो पसंद तो और
दिखता हूँ। इन पंक्तिओं में कवि का व्यंग्यात्मक स्वर झलकता है।
कवि एक अनुभवी व निपुण व्यवसायी लहजे
में अपने ग्राहकों को संबोधित करते हुए कहता है कि, यदि ये
गीत पसंद न आ रहे हों तो मेरे पास और भी गीत हैं जिन्हें में दिखला सकता हूँ। यदि
आप सुनना चाहें तो मैं इन्हें गा भी सकता हूँ। इनमें छंद और बिना छंद वाले हर
प्रकार के गीत पसंद किए जाने लायक हैं। इनमें ऐसे गीत भी हैं जो अमर या कभी न
मिटने वाले हैं और ऐसे गीत भी हैं जिनका प्रभाव तुरंत समाप्त हो जाता है। यदि ये
गीत पसंद न आ रहे हों तो इसमें बुरा मानने जैसी कोई बात नहीं है, मेरे पास
तो कलम और दवात भी है, यदि ये गीत अच्छे नहीं लगे हैं तो अभी नए गीत लिख देता हूँ।
और यदि नये गीत नहीं चाहिए तो मैं पुराने गीतों को भी लिख सकता हूँ। मैं तो नए और
पुराने सभी तरह के गीत लिखता और बेचता हूँ। इन पंक्तियों में कवि जीवन की विषम
परिस्थितियों का मार्मिक चित्र उकेरता है जिसमें उसे किसी भी तरह से अपना सौदा
बेचना ही है।
मेरे गीतों में जन्म का गीत, मरण का गीत, जीत का गीत, शरण का गीत, बीमारी का गीत, दवा का गीत। रेशमी गीत, डिजाइन गीत, फ़िल्मी गीत, श्रम का गीत, नायिका का गीत, प्रिय वियोग का गीत सब दिखलाता हूँ। न पसंद आया उठकर मत जाइए मैं दिल लगी नहीं कर रहा। जरा बैठिए अंतिम दिखलाता हूँ। जिस तरह फेरीवाला येनकेन प्रकारेण अपना सौदा बेचना चाहता है वैसे भवानी जी अपने गीत बेच रहे हैं। ऐसा वे अपनी मर्जी से नहीं बल्कि वे उस स्थिति को बयां कर रहे है जिएमें वे गीत बेचने पर मजबूर हुए। इन पंक्तियों के माध्यम से भवानी प्रसाद न केवल विषम आर्थिक व्यवस्था का चित्रण करते है बल्कि लेखक के प्रति पसरी उदासीनता को भी उद्घाटित करते है। ऐसा कहा जाता है जीवन के एक दौर में भवानी को अपने गीत फिल्मों में बेचने पड़े। उसी से उपजी पीड़ा की यह गीत ईमानदार अभिव्यक्ति है।
रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्बर 1908- 24 अप्रैल 1974) के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। राष्ट्रवाद अथवा राष्ट्रीयता को इनके काव्य की मूल-भूमि मानते हुए इन्हे 'युग-चारण' व 'काल के चारण' की संज्ञा दी गई है।
'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के
रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से
जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओं
में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो
दूसरी ओर कोमल शृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम
उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।
जीवनी
'दिनकर' जी का जन्म 24 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के
सिमरिया गाँव में भूमिहार ब्राह्मण
परिवार में हुआ था। उन्होंने पटना
विश्वविद्यालय से इतिहास राजनीति विज्ञान में बीए
किया। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन
अध्ययन किया था। बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में
अध्यापक होगये। १९३४ से १९४७ तक बिहार
सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया। १९५० से १९५२ तक लंगट
सिंह कालेज मुजफ्फरपुर में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर
विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर 1963 से 1965 के बीच
कार्य किया और उसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने।
उन्हें पद्म विभूषण की उपाधि
से भी अलंकृत किया गया। उनकी पुस्तक संस्कृति
के चार अध्याय के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार
तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार
प्रदान किया गया। अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे।
द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना महाभारत पर आधारित उनके प्रबन्ध काव्य कुरुक्षेत्र को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ काव्यों में ७४वाँ स्थान दिया गया।
1947 में देश स्वाधीन हुआ और वह बिहार
विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रध्यापक व विभागाध्यक्ष
नियुक्त होकर मुज़फ़्फ़रपुर पहुँचे। 1952 में जब
भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य
चुना गया और वह दिल्ली आ गए। दिनकर 12 वर्ष तक
संसद-सदस्य रहे, बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 ई. तक
भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार
ने उन्हें 1965 से 1971 ई. तक
अपना हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए। फिर तो ज्वार उमरा और
रेणुका, हुंकार, रसवंती और द्वंद्वगीत रचे गए। रेणुका
और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अग्रेज प्रशासकों को समझते
देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की
फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं।
चार वर्ष में बाईस बार उनका तबादला किया गया।
रामधारी सिंह दिनकर स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे, लेकिन जब
बात देश के हित-अहित की आती थी तो वह बेबाक टिप्पणी करने से कतराते नहीं थे।
रामधारी सिंह दिनकर ने ये तीन पंक्तियाँ पंडित जवाहरलाल नेहरू के विरुद्ध संसद में
सुनायी थी, जिससे देश में भूचाल मच गया था। दिलचस्प बात यह है कि
राज्यसभा सदस्य के तौर पर दिनकर का चुनाव पणृडित नेहरु ने ही किया था, इसके
बावजूद नेहरू की नीतियों का विरोध करने से वे नहीं चूके।
देखने में देवता
सदृश्य लगता है
बंद कमरे में
बैठकर गलत हुक्म लिखता है।
जिस पापी को गुण
नहीं गोत्र प्यारा हो
समझो उसी ने
हमें मारा है॥
1962 में चीन से हार के बाद संसद में दिनकर ने इस
कविता का पाठ किया जिससे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू का सिर झुक गया था. यह घटना
आज भी भारतीय राजनीती के इतिहास की चुनिंदा क्रांतिकारी घटनाओं में से एक है.
रे रोक
युद्धिष्ठिर को न यहां जाने दे उनको स्वर्गधीर
फिरा दे हमें
गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर॥
इसी प्रकार एक बार तो उन्होंने भरी राज्यसभा
में नेहरू की ओर इशारा करते हए कहा- "क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए
बनाया है, ताकि सोलह करोड़ हिंदीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाए जा सकें?"
यह सुनकर नेहरू सहित सभा में बैठे सभी लोगसन्न रह गए थे।
किस्सा 20 जून 1962 का है। उस
दिन दिनकर राज्यसभा में खड़े हुए और हिंदी के अपमान को लेकर बहुत सख्त स्वर में
बोले। उन्होंने कहा-
देश में जब भी
हिन्दी को लेकर कोई बात होती है, तो देश के नेतागण ही नहीं बल्कि कथित बुद्धिजीवी भी हिन्दी
वालों को अपशब्द कहे बिना आगे नहीं बढ़ते। पता नहीं इस परिपाटी का आरम्भ किसने
किया है, लेकिन मेरा ख्याल है कि इस परिपाटी को प्रेरणा प्रधानमंत्री
से मिली है। पता नहीं, तेरह भाषाओं की क्या किस्मत है कि प्रधानमंत्री ने उनके
बारे में कभी कुछ नहीं कहा, किन्तु हिन्दी के बारे में उन्होंने आज तक कोई अच्छी बात
नहीं कही। मैं और मेरा देश पूछना चाहते हैं कि क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा
इसलिए बनाया था ताकि सोलह करोड़ हिन्दीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाएँ? क्या आपको पता
भी है कि इसका दुष्परिणाम कितना भयावह होगा?
यह सुनकर पूरी सभा सन्न रह गई। ठसाठस भरी सभा में भी गहरा सन्नाटा छा गया। यह मुर्दा-चुप्पी तोड़ते हुए दिनकर ने फिर कहा- 'मैं इस सभा और खासकर प्रधानमन्त्री नेहरू से कहना चाहता हूँ कि हिन्दी की निन्दा करना बन्द किया जाए। हिन्दी की निन्दा से इस देश की आत्मा को गहरी चोट पहुँचती है।'
प्रमुख कृतियाँ
उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण
के खिलाफ कविताओं की रचना की। एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने
ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का तानाबाना दिया। उनकी
महान रचनाओं में रश्मिरथी और परशुराम
की प्रतीक्षा शामिल है। उर्वशी को छोड़कर
दिनकर की अधिकतर रचनाएँ वीर रस से ओतप्रोत है। भूषण के बाद
उन्हें वीर रस का
सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है।
ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना उर्वशी की
कहानी मानवीय प्रेम, वासना और सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमती है। उर्वशी स्वर्ग
परित्यक्ता एक अप्सरा की कहानी है। वहीं, कुरुक्षेत्र, महाभारत के
शान्ति-पर्व का कवितारूप है। यह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है। वहीं
सामधेनी की रचना कवि के सामाजिक चिन्तन के अनुरुप हुई है। संस्कृति के चार अध्याय में
दिनकरजी ने कहा कि सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के
बावजूद भारत एक देश है। क्योंकि सारी विविधताओं के बाद भी, हमारी सोच
एक जैसी है।
निबंध संग्रह
1.
मिट्टी की ओर (1946ई०)
2.
अर्द्धनारीश्वर (1952ई०
3.
रेती के फूल (1954ई०)
4.
हमारी संस्कृति (1956ई०)
5.
वेणुवन (1958ई०)
6.
उजली आग (1956ई०)
7.
राष्टभाषा और राष्ट्रीय एकता (1958ई०)
8.
धर्म नैतिकता और विज्ञान (1959ई०)
9.
वट पीपल (1961ई०)
10.
साहित्य मुखी (1968ई०)
11.
आधुनिकता बोध (1973ई०)
अन्य लेखकों के विचार
· काशीनाथ सिंह के अनुसार "दिनकरजी राष्ट्रवादी और साम्राज्य-विरोधी कवि थे।"
रचनाओं के कुछ अंश
रे रोक युधिष्ठर
को न यहाँ, जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें
गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर --(हिमालय से)
क्षमा शोभती उस
भुजंग को, जिसके पास गरल हो;
उसको क्या जो
दन्तहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो। -- (कुरुक्षेत्र से)
पत्थर सी हों
मांसपेशियाँ, लौहदंड भुजबल अभय;
नस-नस में हो
लहर आग की, तभी जवानी पाती जय। -- (रश्मिरथी से)
हटो व्योम के
मेघ पंथ से, स्वर्ग लूटने हम जाते हैं;
दूध-दूध ओ वत्स
तुम्हारा, दूध खोजने हम जाते है।
सच पूछो तो सर
में ही, बसती है दीप्ति विनय की;
सन्धि वचन
संपूज्य उसी का, जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी
पूजता जग है;
बल का दर्प
चमकता उसके पीछे जब जगमग है।"
दो न्याय अगर तो
आधा दो, पर इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल
पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम।-- (रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 3)
जब नाश मनुज पर
छाता है, पहले विवेक मर जाता है। -- (रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 3)।।
वैराग्य छोड़
बाँहों की विभा संभालो,
चट्टानों की
छाती से दूध निकालो,
है रुकी जहाँ भी
धार शिलाएं तोड़ो,
पीयूष
चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो,
-- (वीर से)
रामधारी सिंह 'दिनकर' |
|
|
|
जन्म |
23 सितम्बर 1908 |
मौत |
24 अप्रैल 1974 (उम्र 65) |
पेशा |
कवि, लेखक |
काल |
आधुनिक काल |
विधा |
गद्य और पद्य |
विषय |
कविता, खंडकाव्य, निबंध, समीक्षा |
आंदोलन |
राष्ट्रवाद, |
उल्लेखनीय
काम |
कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी, हुंकार, संस्कृति के चार
अध्याय, परशुराम की प्रतीक्षा, हाहाकार |
खिताब |
1959:साहित्य अकादमी
पुरस्कार |
जीवनसाथी |
श्यामवती देवी |
|
|
प्रधानमंत्री, श्री नरेंद्र मोदी 22 मई, 2015 को नई दिल्ली में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' के कार्यों की स्वर्ण जयंती समारोह में
रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्बर
1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी
के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे
व्याल पर विजय : अर्थ एवं
व्याख्या
‘व्याल
पर विजय’ कविता दिनकर की
इतिवृत्तात्मक कविता है। इसमें कवि ने बालक कृष्ण के जीवन से जुड़ी एक रोचक कथा का
सहारा लिया है। कृष्ण द्वारा कालिया नाग वद्य की मिथकीय कथा को कवि ने काव्यात्मक
अभिव्यक्ति प्रदान की है। पौराणिक-धार्मिक कथा के बहाने कवि ने आधुनिक समाज की
समस्याओं पर भी विचार किया है। इस कविता में कृष्ण नागराज को नाथ उसके मस्तक पर
चढ़कर उस जहरीली व्यवस्था को चुनौती देते प्रतीत होते हैं, जिससे सामान्य जन एवं सर्वहारा हमेशा पीड़ित
और दमित होते हैं। कवि की दृष्टि में शेषनाग यहाँ विषाक्त युग का तथा कवि कृष्ण का
प्रतीक है। कवि विषाक्त युग रूपी नाग पर नाचते हुए बाँसुरी बजाना चाहते हैं,
झूमें जहर चरण के नीचे मैं उमंग में गाऊँ।
तान, तान फण व्याल ! कि तुझ पर मैं बांसुरी बजाऊँ।
ऐसी मान्यता है कि बांसुरी
सृजन और प्रलय दोनों ही कालों में बजती है यहाँ तक कि अपनी समाधिस्थ अवस्था में
योगी को भी बांसुरी की वही ध्वनि सुनायी देती है। कवि कहता है कि शांत समुद्र को
वह आंदोलित करेगा। कहा गया है कि अक्षयवट पर कृष्ण ने बांसुरी बजायी उसकी अद्भुत
सुरीली ध्वनि से आसमान भी झूम उठा। बाँसुरी की उसी ध्वनि व राग ने ही धरती पर
ब्रह्म को अवतरित होने तथा सृष्टि के लिए प्रेरित किया था और बांसुरी की उसी ध्वनि
के प्रभाव से पृथ्वी-जल मुक्त हुई थी।
कृवि को संपूर्ण सृष्टि
में बांसुरी का रागपूर्ण संगीत विकास पाता हुआ और संगीत के ही स्वर पर धरती टॅगी
हुई दृष्टिगोचर होती है। धरती को पुनः बांसुरी की उसी तान पर कदि झुलाना चाहता है।
कवि कहते हैं कि आकाश से ओस की बूंदें भी बांसुरी की ध्वनि के ताल पर ही गिरती हैं, यहाँ तक कि तारों का झिलमिलाना, आसमान में कजरी का सजना और इंद्रधनुषी वितान
का दृश्यमान होना सब उस ध्वनि के ताल पर संभव होता है। बांसुरी के नाद के प्रभाववश
ही आकाश में तारे उदित दिखायी देते हैं। फूल, आग, पावन गंगा भी उसी नाद के कण से निर्मित हैं, ऐसे में बांसुरो के नाद अमृत को पीकर विष को
भला किसके लिए छोड़ा जा सकता है। बांसुरी की मनोहर पनि का ही प्रभाव है कि माया
कमजोर हुई और सत्य का मर्म प्रकाशित हुआ, यहाँ
तक कि प्रकृति की मादक भादनी को सरसराने तथा विराद प्रकृति को स्पदित करने का
श्रेय भी बांसुरी की हम मनोहर पनि को ही है। उस प्यनि को कवि शेषनाग जो विषाक्त
युग है, के फण पर अमृत रूप में
बरसाना चाहता है। कवि कहता है कि इस बांसुरी के बजने से ही जंगल में अमृत रूप जल
के झरने फूटे फिर वहाँ चतुर्दिक हरियाली हिरकी जिसकी ओर आसमान सके और उसके पक्षी
उतरे। कवि उस बांसुरी की ध्वनि रूपी अमृत सागर में विष को धो बहाना चाहता है।
यमुना के तट पर रचाये गये राम और श्मशान में
बिखेरी गयी भयंकरता के मूल में भी कारण उस बांसुरी की ध्वनि ही है जो घोर अंधेरी
रात में और रक्त से दीप्त सूर्य के उदीप्त होने पर भी बजी। कवि यमुना में मिले हुए
विष को अमृत बना देने के लिए कटिबद्ध है। विषाक्त युग जिसे कवि ने यहाँ शेषनाग के
रूप में उपस्थित किया है वह चाहे विषपान जितना भी करे, बांसुरी की ध्वनि का मर्म यह विषाक्त युग मला
क्या समझे जो अपने ही विष से पागल है पर कवि उसकी पीठ पर पुष्प वर्षा करने के लिए
प्रस्तुत हुआ है। यदि विषमय सरिता से यह शेषनाग निकलकर बाहर आयेगा तब कवि उसे
फूलों से सजायेगा।
कवि कहता है कि शंका से साँप अपनी आँखों से
सुनने के कारण चक्षुश्रवा कहलाता है, उसकी बाँसुरी के स्वर-मर्म को समझे और यह भी
समझे कि उसे जिसने विष दिया है, उसी ने उसे संगीत भी दिया है और परोपकार का वरदान भी जब कि उसे (सर्प) इर्ष्या
मिली है। कवि स्वयं को मिले वरदान से प्रसन्न है। कविता के अंत में कवि विषधर को
ललकारते हुए कहता है,
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